जलियाँवाला बाग का हत्याकांड, भारतीय इतिहास के ज़ख्मों में से एक है, जो 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर, पंजाब में हुआ था। हज़ारों की तादाद में लोग, जो बैसाखी मनाने और शांतिपूर्ण बैठक के लिए जमा हुए थे, उन पर बेरहमी से गोलियां चलाई गईं।
अंग्रेज़ों के जुल्म की दास्तान बयां करते हुए, इतिहासकार किम वाग्नेर अपनी किताब “अमृतसर: द पार्टिशन एंड इट्स आफ्टरमाथ” में बताते हैं कि कैसे उस वक्त पंजाब में गुस्सा भड़का हुआ था। अंग्रेज़ों ने एक ऐसा कानून बनाया था, जिससे उन्हें बिना किसी मुकदमे के लोगों को गिरफ्तार करने का हक मिल गया था। ये ज़बरदस्ती और ऊपर से चल रहे लड़ाई-झगड़ों की वजह से लोगों का जीना दूभर हो गया था।
उस वक्त अमृतसर के फौजी अफसर, ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर, अपने सख्त मिज़ाज़ के लिए जाने जाते थे। इतिहासकार निगेल कोलेट ने अपनी किताब “द बुचर ऑफ अमृतसर: जनरल डायर एंड द मैसाक्र ऑफ 1919” में लिखते हैं कि डायर को भारतीयों पर भरोसा नहीं था और वो हर तरह के विरोध को दबाना चाहते थे।
जिस दिन ये हादसा हुआ, डायर को लोगों के जमा होने की खबर मिली, वो अपने सिपाहियों के साथ जलियांवाला बाग पहुंच गया। उसने वहां से निकलने का एक ही रास्ता बंद कर दिया और बिना किसी चेतावनी के, अपने आदमियों को निहत्थे लोगों पर गोलियां चलने का हुक्म दे दिया। ये गोलीबारी दस से पंद्रह मिनट तक चली, जिसमें सैकड़ों लोग शहीद हो गए और हजारों घायल हो गए।
चार्ल्स जेफरी अपनी किताब “फियर, मेमोरी, एंड द मेकिंग ऑफ द मार्टर्स ऑफ जलियांवाला बाग” में इस हत्याकांड के बाद के हालात के बारे में बताते हैं। पूरे देश में, और यहां तक कि दुनियाभर में, इस अंग्रेजी ज्यादती की कड़ी निंदा की गई। ये हादसा भारत की आज़ादी की लड़ाई में एक अहम मोड़ साबित हुआ, जिसने लोगों में गुलामी के खिलाफ आग जगा दी और उन्हें आज़ादी की लड़ाई को और मजबूती से लड़ने का हौसला दिया।
जलियाँवाला बाग का हत्याकांड, ब्रिटिश राज के जुल्म और भारत की आज़ादी की लड़ाई की एक याद दिलाता है। ये वारदात आज भी भारतीयों के दिलों में गुस्से और जज़्बे की एक निशानी के तौर पर जिंदा है।